Ichadhari Nagin Ki Kahani:: प्रतिशोध | Naag Naagin Ka Kahani
Ichadhari Nagin Ki Kahani: Pratishodhइच्छाधारी नागिन की कहानी: प्रतिशोध
बेशुमार दौलत थी राजकुमार के पास। ईश्वर ने उसे दुनिया में यश नाम तथा साधन सम्पन्न करके ही भेजा था। कहते हैं कि दौलत जब किसी के पास होती है तो अपने साथ विभिन्न ऐब भी ले आती है।
शराब, शबाब और शिकार। ऐसा कौन सा शौक था, जो उसने न पाल रखा हो! वह अपने गांव नागपुर का राजकुमार ही था।
पहाड़ों व जंगलों से घिरा यह गांव जम्मू शहर का भाग था। इस गांव का नाम वैसे ही नागपुर नहीं पड़ा था, बल्कि यहां चारों तरफ बड़ी संख्या में तरह-तरह के सांप आराम से पड़े, घूमते रहते थे। इसलिए यह नागपुर कहलाता था।
इस पहाड़ी गांव में खुले आम भारी तदाद में सांप घूमते रहते थे। सांपों और इन्सानों में एक अघोषित समझौता था कि न तो दोनों एक-दूसरे को कुछ कहते थे और न एक दूसरे से डरते ही थे। औरतों और छोटे बच्चे भी सांपों के साथ खेलते रहते थे।
हिन्दू बहुल इस गांव में मुस्लिम आबादी तो नाममात्र ही थी। राजकुमार यहां का सबसे सम्पन्न आदमी था। गांव में धन और धरती सबसे ज्यादा उसी के पास थी। महल जैसी शान-ओ-शौकत वाली विशाल हवेली थी उसकी। यह सफेद महल कहलाती थी। अलग-अलग कामों के लिए अलग ही नौकर थे इस हवेली में।
अपनी सम्पन्नता का राजकुमार अवैध लाभ उठा रहा था। पूरी तरह अय्याश यह शख्स शराब और शबाब का पक्का शौकीन था। श्रीनगर व दिल्ली में उसके आलीशान आवास थे। जब कभी गांव से ऊब जाता तो इन दोनों स्थानों की ओर निकल पड़ता था।
बाहर तो वह अय्याशी करता ही था, गांव में भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आता था। जवान बहू-बेटी वाले, खासकर गरीब लोग उससे बहुत परेशान थे। किसी में साहस न था कि उसके विरुद्ध आवाज उठा सके या रोक सके।
हर बड़े जमींदार की तरह राजकुमार शिकार का भी शौकीन था। प्रायः वह अपने साथ नौकरों की फौज लेकर शिकार के लिए पहाड़ों और बंगलों में निकल पड़ता था। वहां के जंगलों में हिरण व बारहसिंघों की बहुतायत थी। राजकुमार इन्हीं का शिकार करने जाता था।
लेकिन जैसा कि इस गांव के लोगों का सांपों से एक अघोषित समझौता था कि प्यार से रहो और प्यार से रहने दो। उस में कभी राजकुमार ने भी व्यवधान नहीं डाला था। वह अन्य जानवरों को शौक के लिए मार डालता था। बिना जरूरत भी उनकी जान ले बैठता था। लेकिन सांपों को उसने भी कभी कोई हानि पहुंचाने का प्रयास नहीं किया था।
राजकुमार के दो बेटे आदेश और आनन्द थे। जिन्हें वह भी हर बाप की तरह जान से ज्यादा प्यार करता था। दोनों बेटे खूबसूरती का एक शानदार नमूना थे।
दोनों भाई-भाई थे, किन्तु दोनों के व्यवहार बिलकुल अलग थे। बड़ा बेटा आदेश प्रायः शान्त प्रकृति का था। जबकि छोटा आनन्द चंचल और शरारती स्वभाव का था। उसकी शरारतों से परेशान गांव वाले भी थे, लेकिन राजकुमार का दबदबा उन्हें मौन बनाये रखता था। यहां तक कि वह सांपों को सताने में भी आनन्द लेता था।
राजकुमार जब शिकार पर जाता था तो आदेश और आनन्द को भी साथ ले जाता था। उसके साथ शिकार पर जाने से वह दोनों भी अच्छे निशानेबाज बन गये थे। आनन्द वहां भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आता था।
गांव के बाहर एक सुन्दर पुरानी झील थी। जिसमें पहाड़ों से बहकर आने वाला पानी जमा होता था। यही पानी ज्यादा होकर झरने के रूप में बाहर भी बहता था। पहाड़ के किनारे पर हजारों साल पुरानी एक गुफा थी। इस सैंकड़ों फीट ऊंचाई पर स्थित गुफा तक शायद ही कभी कोई जाता था।
यह पुरानी गुफा एक विशाल अजगर का निवास थी। प्रत्येक चौदहवीं की रात में अजगर अपनी गुफा से बाहर आता था और सीधा झील में समा जाता था। पूरी रात पानी में गुजारकर प्रातः कुछ देर सूरज की गर्मी में रहता और गुफा में वापस चला जाता था।
गांव वाले इस अजगर को अपना देवता समझते थे। कहा जाता था कि जिस रात वह पानी में रहता था, तब पानी का रंग हरा हो जाता था। जिससे इस पानी में स्नान करने वाले के समस्त त्वचा संबंधी रोग मिट जाते थे। इसलिए त्वचा रोगों से पीड़ित लोग बड़ी शिद्दत के साथ चौदहवीं की रात के आने की प्रतीक्षा करते थे।
जब अजगर रात को निकलकर चांदनी में सरकता हुआ गुफा से झील के पानी में पहुंचता था तो लोग प्रसन्न हो उठते थे। सांपों की ही तरह लोग अजगर से भी डरते न थे और न अजगर कभी किसी को कुछ कहता था। प्रातः सूरज निकलने पर अजगर जब वापस अपनी गुफा में चला जाता तो लोगों में झील के पानी में नहाने की होड़ लग जाती थी। यहां तक कि जिनके घाव सड़ जाते और कोई दवा असर न करती थी, उन लोगों के लिए भी यह पानी वरदान बन जाता था।
जाने कब से यह चला आ रहा था। दूर-दराज के क्षेत्रों से भी लोग अपने त्वचा रोगों के निवारण को आते और स्वस्थ होकर जाते। यही कारण था कि लोगों में सांपों के प्रति सौहार्द्र बना था।
आदेश और आनन्द अब जवान हो चले थे। लेकिन आनन्द अभी भी अपनी उदंड प्रकृति छोड़ नहीं पा रहा था। उसकी शरारतों में कोई कमी नहीं आयी थी। अब वे दोनों अपने पिता के बिना भी शिकार पर जाने लगे थे। ऐसे ही उन्होंने एक दिन शिकार का कार्यक्रम बना लिया। वह दोनों ही घोड़े पर सवार होकर जंगल के लिए रवाना हो गये थे। अपने साथ उन्होंने किसी नौकर को भी न लिया था।
दुर्भाग्य से उस दिन उनके कोई शिकार हाथ न लगा। निराश होकर वापस आते समय दोनों ने देखा कि झरने से बनी नदी के किनारे पर नाग-नागिन का एक जोड़ा अपनी अठखेलियों में मस्त था। घोड़े की पास आयीं टापों की आवाज का भी उन पर प्रभाव न पड़ा। घोड़े की लगाम थामे आदेश ने घोड़े को रोक लिया। उन्हें नागों की प्यार भरी अठखेलियों में मजा आ रहा था। तभी आनन्द को न जाने क्या सूझा कि उसने हाथ में थमी बंदूक सीधी की और दोनों का निशाना लेकर घोड़ा दबा दिया।
गोली जाकर सीधे नाग को लगी, जिससे कुछ पलों में ही तड़पकर उसने दम तोड़ दिया।
“अरे, ये क्या कर दिया?" हड़बड़ाकर आदेश बोला, उसके स्वर में दुख भी था।
“भइया! खाली हाथ लौट रहे थे। शिकार कर लिया...।" आनन्द हसकर इस प्रकार बोला, मानो कोई बात ही न हो।
"तुमने बड़ा बुरा किया। हमारे गांव में कभी ऐसा नहीं हुआ। देखो, नागिन गुस्से में भरी फुफकार रही है। तुरन्त वापस चलो...।"
"मैं तो इसका भी शिकार करूंगा।" 1 जब समझाने पर भी आनन्द नहीं माना तो किसी अनहोनी से ग्रस्त आदेश अकेला वापस हो गया।
अपनी आंखों के आगे नाग के मरने से नागिन का पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा और फुफकारती हुई भयानक अन्दाज में वह आनन्द की ओर लपकी। नागिन का विकराल रूप देखकर आनन्द को कुछ भय हुआ। उसने फिर भी नागिन पर कई फायर कर डाले। लेकिन भय के कारण उसके सब निशाने चूक गये। भाई के वापस जाने से वह अकेला होने से और घबरा गया। जैसे ही नागिन पास आयी, उसे और कुछ न सूझा तथा वह बंदूक फेंक सीधे नदी में जा कूदा। उसने सोचा था कि नागिन शायद पानी में उसका पीछा न करेगी। लेकिन यह उसकी भूल थी नागिन पहले तो किनारे पर बैठी ही फुफकारती रही। फिर वह भी रेंगकर पानी व में उतर गई।
पानी में वह आनन्द की ओर न बढ़ कर वहीं कुछ पल तैर कर वापस बाहर निकली और अजगर की गुफा वाली पहाड़ी की ओर चली गयी।
उसके जाते ही नदी का पानी एकदम काला पड़ गया। पानी में घुसे आनन्द को अचानक ऐसा लगा, मानो किसी ने उसके शरीर पर मिर्चे मल दी हों। पानी में । रुक सकना कठिन हो गया। वह तुरन्त बाहर निकला। जलन से वह कराहने लगा।
कुछ देर में ही उसकी चीखें गूंजने लगीं। वह चिल्लाता हुआ गांव की तरफ भागा। . उसके शरीर में भयानक जलन मच गयी थी। नागिन शायद ज्यादा ही जहरीली थी जा और उसने नदी में उतरकर वहां अपना जहर उगल दिया था। जिससे पानी जहरीला हो गया था। जहर का प्रभाव इतना भयानक था कि आनन्द की त्वचा गल-गल कर उतरने लगी।
हवेली तक वह कठिनाई से पहुंच पाया। ड्योढ़ी पर पैर धरते ही वह गिरा और उसके उसके प्राण-पखेरू उड़ गये, उसकी चीख-पुकार सुनकर भारी भीड़ उसके पीछे दौड़ी चली आयी थी। उसकी दर्दनाक मौत देखकर सभी अपने कानों को हाथ लगा प्रार्थना कर उठे कि ईश्वर किसी को ऐसी मौत न दे।
हवेली में हाहाकार मच गया। गांव में भी शोर फैल गया। आदेश की हालत खराब थी। राजकुमार जिस समय वापस आया तो आनन्द की अर्थी तैयार की जा रही थी।
जवान बेटे की अर्थी देखकर राजकुमार की दशा बिगड़ गयी। वह मानो पागल हो उठा। दीवारों से सिर टकरा-टकराकर वह रोने लगा।
दबी जुबान लोगों में चर्चा थी कि यह सब राजकुमार के कर्मों का फल था। उसे उन निर्धन व गरीबों की हाय ने डसा है, जिनकी अस्मतें उसने लूटी थीं। राजकुमार को अपने कर्म तो ध्यान नहीं आये। बजाये इसके कि बेटे की मौत से सबक लेकर बुराई से तौबा करता, उसने सांपों से बदला लेने का निश्चय कर लिया।
राजकुमार ने शपथ ले ली कि वह आस-पास के क्षेत्र को सांपविहीन कर देगा और इसके लिए उसने दौलत पानी की तरह बहानी शुरू कर दी। उसने सोच लिया कि यहां एक भी सांप को जिन्दा नहीं छोड़ेगा। उसने घोषणा कर दी कि कोई ग्रामीण या सपेरा एक सांप भी मारकर लायेगा तो नकद इनाम और एक मन गेहूं उसे दिया जायेगा।
कुछ डर से और कुछ लालच से लोग राजकुमार के कहे पर अमल करते सांपों के सफाये में जुट गये। उन्होंने सांप मार-मारकर राजकुमार से नकद धन और गेहूं पाना शुरू कर दिया। फिर भी यह काम इतना आसान भी नहीं था। लगभग एक असम्भव प्रक्रिया थी यह-और इसमें लम्बा समय भी लगना था। लेकिन राजकुमार क्रोध से अन्धा हो चुका था।
अपने निश्चय की पूर्ति के लिए राजकुमार अनेक नगरों और दिल्ली भी जा पहुंचा तथा सांपों का कारोबार करने वाले लोगों को मोटी धनराशि का लालच देकर गांव में ले आया।
यहां तक कि उसने पहाड़ों में बारूद लगवाकर उन्हें उड़वाकर कंकर-रेत में बदल डाला। उसके इस पागलपन से बीमारों का देवता वह अजगर भी बारूद से मारा गया और झील में आकर नदी का रूप धारण कर लेने वाला पहाड़ से बहकर आने वाला पानी भी बन्द हो गया।
अपने धन के दम पर राजकुमार ने जाने कितने सांपों को मरवा डाला। फिर उसने गांव का नाम नागपुर से आनन्दपुर करा दिया।
वह अब भी शिकार पर जाता था। लेकिन अब वह केवल सांपों का शिकार करता था। उसके भीतर प्रतिशोध की ज्वाला निरन्तर धधक रही थी। वह तो मानो पागलपन की सीमा पार कर गया था।
उसने मान लिया था कि वह सांपों का नामोनिशान मिटा देगा। लेकिन वह उसकी भूल थी।
इसी प्रकार तीन वर्ष चले गये। वह बेटे की मौत का गम भुलाने लगा था। धीरे-धीरे फिर उसकी अय्याशियां प्रारम्भ हो गयी थीं। आदेश को उसने दिल्ली भेज दिया। कुछ नौकर भी उसके साथ भेज दिये गये। जिससे उसकी आजादी बनी रहे और बेटे को भी परेशानी न उठानी पड़े।
इसके बाद राजकुमार कुछ दिनों के लिए अपनी श्रीनगर वाली हवेली पर गया तो वहां एक युवती को देखकर अपने होश खो बैठा। यह कोहिनूर और उसकी अपनी हवेली में! पता लगा, यह उसके ही नौकर की पत्नी है, जो अभी विवाह कराकर आया था। लेकिन पिछले महीने ही उसकी मौत हो गयी थी और उसकी बेवा अभी तक यहीं रह रही थी।
फूलवती नाम था उसका। खूबसूरती में लाखों में एक । बहुत औरतें आयी थीं राजकुमार की जिंदगी में, लेकिन ऐसी खूबसूरती उसने पहली बार देखी थी। कुदरत ने उसे शायद फुर्सत से गढ़ा था।
फूलवती को देखकर राजकुमार सब कुछ भूल गया। उसके नींद-चैन हराम हो गये। उसका बुढ़ापा जवानी के गीत गुनगुनाने लगा। फूलवती पर उसने कृपा बरसानी शुरू कर दी। वह भी ऐसी अनजान न थी। उसने मालिक की आंखों की भाषा पढ़ ली थी। अहसानमंद भी हो रही थी। दोनों शीघ्र ही पास आ गये। राजकुमार ने मौहब्बत में जमीन-आसमान एक करने का दावा किया। फूलवती भी जवानी लुटाने को तैयार हो गयी।
राजकुमार के दिल की कली खिल उठी। क्षणांश में ही वह सारी वर्जनाएं तोड़ने को उतारू हो गया। लेकिन फूलवती भी ज्यादा समझदार थी। अपनी जवानी का मोल शायद वह जानती थी। जिसे उसने सस्ते में न लुटने दिया और स्पष्ट कर दिया कि यदि वह उससे शादी करता है, तभी उसे पा सकेगा।
फूलवती के हुस्न की तपिश में राजकुमार ऐसा झुलस रहा था कि उसे शांत करने के लिए हर शर्त मानने को तैयार था। शादी की बात वह तुरन्त मान गया। श्रीनगर में ही उसने शादी की और फूलवती को अपने साथ लेकर नागपुर आ पहुंचा।
राजकुमार फूलवती को पाकर निहाल हो उठा। उसके दिन हसीन और रातें रंगीन हो उठीं। फूलवती भी उस पर अपना सारा प्यार लुटा रही थी। दो माह मौजमस्ती में गुजरे और पता भी न चला। लेकिन... होनी कुछ और ही चाह रही थी। दो माह बाद राजकुमार कुछ बीमार रहने लगा। प्रत्येक दिन उसका स्वास्थ्य साथ छोड़ने लगा। अनेक उपचार कराये। लेकिन वह ठीक न होता दिखा।
उसका शरीर सूखता जा रहा था। मानो, पानी न मिलने से कोई वृक्ष सूखता चला जाता है। देखकर ऐसा आभास होता था, मानो किसी ने राजकुमार के शरीर का सारा रक्त निचोड़ डाला हो।
छह माह पूरे मुश्किल से हो पाये थे कि राजकुमार ईश्वर को प्यारा हो गया। फूलवती का हाल बुरा था। वह दहाड़ मार-मारकर, पछाड़ खा-खाकर गिर रही थी।
ऐसा तो न हो सका। लेकिन फूलवती हवेली से उसी रात जाने कहां चली गयी। लगता था कि वह उसी की चिता में उसके साथ जलकर सती हो जायेगी।
ढूंढने पर भी उसका कोई पता न लग सका।
राजकुमार के जाने के बाद गांववालों ने राहत सी पायी। आदेश अब पूरी तरह दिल्ली में ही बस गया। कभी भूले-भटके ही गांव आता था। सारे कारोबार का दायितव उसने अपने बच्चपन के मित्र सुभाष के हवाले कर, छुट्टी पा ली थी। राजकुमार व उसके बेटे के निगाहें फेर लेने से यह सफेद हवेली बेजान हो गयी थी।
सुभाष ने व्यवसाय का दायित्व बड़ी कुशलता से सम्भाल लिया था। वह एक सज्जन इंसान था।
आदेश अपने पिता से एकदम विपरीत प्रकृति का था। वह जब भी कभी गांव में आता था तो मानो हवेली के दिन फिर जाते थे। गांव में भी कुछ अलग ही गहमा-गहमी हो जाती थी। आदेश ने अभी तक शादी न की थी। सुभाष की बहन रश्मि दिल-ही-दिल आदेश को प्यार करती थी। लेकिन वह इन सब बातों से बेपरवाह था। उसने रश्मि के बारे में कभी इस प्रकार सोचा ही नहीं था। सुभाष की भी यह इच्छा थी कि यदि आदेश ऐसा कुछ इशारा करे तो वह तुरन्त हां कर दे और दोनों का विवाह कर निश्चिंत हो जाये।
आदेश आजकल गांव में ही था। गर्मी का मौसम था और दिल्ली की गर्मी। उफ! उसी से राहत पाने को वह यहां आया था।
बड़े अन्तराल के बाद अचानक उसके मन में शिकार पर जाने का विचार पैदा हुआ। घोड़े पर बैठ वह जंगल की ओर निकल गया। वहां उसे एक हिरण दिखाई दिया तो वह उसके पीछे दौड़ पड़ा।
आदेश बहुत अच्छा निशानेबाज था। उसके नौकर यह सोचकर वहीं पर रह गये कि वह बुलायेगा तो वह जाकर शिकार को उठा लायेंगे।
अपना पीछा होते देख हिरण पूरी ताकत से भाग रहा था। आदेश के सारे प्रयासों के बाद भी वह निशाने पर नहीं आ रहा था।
आदेश हिरण के नजदीक पहुंचने के फेर में घोड़ा दौड़ा रहा था। लेकिन फासला बढ़ते-बढ़ते आखिर हिरण आंखों से ओझल हो ही गया।
उसने जंगल में घूम-घूमकर लगभग हर जगह हिरण को ढूंढा। लेकिन हिरण था कि गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो चुका था। एक स्थान पर रुककर वह सुस्ताने लगा।
उसे आशा थी कि शायद हिरण फिर से दिख जायेगा तो वह उसे मार गिरायेगा । लेकिन सफलता नहीं मिलनी थी। जाने जमीन निगल गयी या आसमान खा गया और हिरण गायब हो गया था।
निराश होकर आदेश वापस लौटने लगा। अभी वह कुछ ही दूर आया होगा कि अचानक जंगल में किसी स्त्री के रोने की आवाज सुनाई दी सुनकर उसने घोड़ा रोक दिया और आवाज की दिशा में बढ़ा।
कुछ आगे जाकर उसे एक सुन्दर लड़की नजर आयी। वह लड़की बहुत कीमती कपड़े और भारी स्वाभूषण पहने थी। वह एक पेड़ के नीचे बैठी जार-जार रो रही थी। ऐसी खूबसूरत लड़की आदेश ने अपने जीवन में नहीं देखी थी। वह इस हसीन करिश्में को देखता ही रह गया।
इस बात से भी आदेश हैरान था कि इस घने जंगल में यह खूबसूरत लड़की आ कहा से गयी थी? वह रो क्यों रही थी? उसके कीमती वस्त्राभूषण बता रहे थे कि वह थी तो किसी ऊंचे घराने से है।
आदेश ने घोड़े से उतरकर लड़की के पास जाकर पूछा-'कहाँ से आई हो तुम? कौन हो? इस भयानक जंगल में अकेली क्यों हो?"
"मैं एक निर्भागी हूं...और अपने मुकद्दर पर रो रही हूं...।"
"ऐसी कौन सी कयामत टूटी है तुम पर? तुम कौन हो और कहां से भटक आयी हो? मैं तुम्हारी कुछ सहायता कर सकता हूं तो बताओ।" सहृदयता के भाव से आदेश ने उस लड़की से पूछा।
"आप भला मेरी क्या मदद कर सकते हैं?" मायूस भाव से वह बोली। 'बताओ तो सही, हुआ क्या है आखिर?" लड़की को तसल्ली देते आदेश ने पूछा।
"मेरे पिताजी, भंडार गांव के सम्पन्न व्यक्ति थे। हमारा गांव पंजाब में है। जाने कितनी धन-दौलत, जमीन-जायदाद हमारे पास थी। अपने पिता की मैं अकेली ही लाडली बेटी थी। पास के गांव के राजपूतों से हमारा खानदानी झगड़ा चला आ रहा था। जिसमें कभी भी आमना-सामना हो जाता था। अभी पिछले दिनों विवाद ऐसा बढ़ा कि वहां के राजपूतों ने हमारे गांव पर हमला कर दिया। मेरे पिता और अन्य बिरादरी वालों ने उनका काफी बहादुरी से मुकाबला किया। लेकिन उन्होंने मेरे पिताजी को मार डाला। मुझे पता था कि अब वे दुश्मन मुझे अपने साथ उठा ले जायेंगे और मुझसे बुरा बर्ताव भी किया जायेगा। अतः अवसर देखकर मैं वहां से भाग निकली। हवेली के एक चोर दरवाजे से निकलकर मैं पनाह ढूंढती...छुपती फिर रही हूं...और उसी चाह में भटकती यहां तक आ पहुंची हूं। लेकिन अब न मुझे रास्ता सूझ रहा है और न हिम्मत रही है। यह भय भी सता रहा है कि शत्रु मेरी तलाश में आ गये तो मुझे उठा ले जायेंगे...।" अपनी दर्द भरी दास्तान सिसकियों के बीच सुनाकर लड़की फिर रोने लगी।
उसकी करुण गाथा सुनकर आदेश का मन पसीज उठा-“तुम इस समय पंजाब में नहीं, कश्मीर में हो। घबराने की आवश्यकता नहीं है। अब वे दुश्मन तुम तक नहीं पहुंच सकेंगे।"
"मेरा सब कुछ लुट चुका है। दुनियां में मेरा कोई नहीं है, जिन्दा किसके सहारे रहूंगी? करूंगी भी क्या जिंदा रहकर...।” कहकर वह रोने लगी
आदेश ने हमदर्दी जताई-“देखो, रोने से कोई लाभ नहीं। अगर चाहो तो मेरे साथ चलो। यहीं गांव में मेरी हवेली है। वहां तुम सुरक्षित और आराम के साथ रह सकोगी।"
“आपकी सज्जनता का धन्यवाद । आप भले आदमी लगते हैं.....।" नजरें झुकाए उस लड़की ने कहा।
"उठो...तो फिर चलो।" "क्या हवेली में मेरी स्थिति नौकरानी की होगी?"
गम्भीरता से आदेश ने जवाब दिया-"नहीं। तुम्हें उचित सम्मान मिलेगा।"
"मेरी क्या हैसियत होगी?"
लड़की के अनूठे सौन्दर्य ने आदेश को पहले ही प्रभावित कर लिया था। यह बात भी उसके मन में बैठ गई थी कि लड़की किसी उच्च परिवार से संबंध रखती है। कुछ देर विचार-मग्न रहने के बाद झिझकते हुए उसने कहा "अगर बुरा ना मानो तो मैं तुम्हें जीवन-साथी का दर्जा देने को तैयार हूं। आनन्द नगर के जागीरदार राजकुमार मेरे पिता थे।"
शरमाकर लड़की ने आंखें झुका लीं।
लड़की के आंखें झुकाने को आदेश ने मौन सहमति मान लिया और उसका चेहरा प्रसन्नता से दमकने लगा। एक कदम आगे बढ़कर लड़की का हाथ पकड़ते हुए उसने कहा-“तुमने मेरी बात रख ली, इसके लिए मैं तुम्हारा एहसानमंद हूं। तुम्हारी स्वीकृति मेरी लिए खुशियों के चिराग जगाने वाली है। जैसी पत्नी की मेरी इच्छा थी, तुम्हारे रूप में मेरी वही कल्पना साकार हो गई है।"
आदेश उस लड़की जिसका नाम शालिनी था, को लेकर हवेली में आ गया। अगले दिन दोनों की शादी धूमधाम से सम्पन्न हो गई। इस उपलक्ष्य में गांव कई दिन तक जश्न में डूबा रहा।
जिन्दगी सहज भाव से चल पड़ी। एक दिन शालिनी ने कहा-“जितनी प्रसन्न मैं आपके साथ रह कर हूं, वह खुशी तो मैंने अपने गांव में भी नहीं पाई थी। आपके रूप में मैंने अपने दिल की हर तमन्ना पा ली है। मेरा पूरा जीवन ग्रामीण माहौल में ही बीता है। मैं शहरी जीवन भी देखना चाहती हूं। यदि आप उपयुक्त समझें तो हम शहर में चलकर रहें..."
शालिनी की बात का मान रखते हुए आदेश उसे लेकर दिल्ली चला आया। दोनों एक-दूसरे के साथ बहुत खुश थे और यह खुशी दिनों दिन परवान चढ़ती जा रही थी। आदेश उस पर जान भी न्यौछावर करने को तैयार रहता था। लेकिन उन दोनों की यह खुशी अधिक समय कायम न रह सकी।
एक दिन आदेश यकायक अस्वस्थ हो गया और उसकी तबियत धीरे धीरे खराब होने लगी। पेट में हर समय दर्द और उसके अंग-प्रत्यंग टूटे-टूटे से रहने लगे और उसने इस ओर खास ध्यान भी नहीं दिया।
"केवल थोड़ी सी निर्बलता हो गई है, जल्दी ही सुधार हो जायेगा, यह सोचकर वह अपने स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं देता।"
किन्तु वक्त बीतने के साथ उसकी बीमारी जोर पकड़ती गई। डॉक्टर से परीक्षण कराने पर उसने भी मामूली बात बताकर उसी के अनुरूप दवाइयां भी दे दीं। किन्तु ‘मर्ज बढ़ता गया,
ज्यों-ज्यों दवा की' उक्ति के अनुरूप आदेश द्वारा नियम और समय से दवाइयां लेने के बावजूद उसकी तबियत ठीक नहीं हुई और मर्ज बढ़ता चला जा रहा था।
इसके बाद डॉक्टर, हकीम और वैद्यों से लाख इलाज कराने के बाद भी बीमारी जस की तस बनी रही। रोग था कि लगातार बढ़ता ही जा रहा था। आखिर स्थिति यहां तक आ गई कि बीमार आदेश अपने कमरे तक ही सिमट कर रह गया।
हर समय वह बिस्तर पर ही पड़ा रहने लगा और इतना कमजोर हो गया था कि चलना-फिरना तो दूर, उठने तक की हिम्मत गंवा बैठा। उसके इतना बीमार होने से शालिनी बेचैन हो उठी। हर समय वह आदेश के निकट ही रहती थी और बड़ी मेहनत से उसकी देखभाल में जुटी रहती थी।
कोई समझ नहीं पा रहा था कि आखिर आदेश को क्या रोग हो गया है? डॉक्टर, हकीम तथा वैद्य सारे प्रयास करके हिम्मत हार चुके थे। इसी प्रकार महीनों बीत गये।
स्वयं आदेश भी अब चिन्तित हो उठा था। उसे लगने लगा कि शायद उसकी सांसें अब चन्द दिनों में थमने ही वाली हैं। शालिनी निरन्तर उसे हिम्मत देती रहती थी कि शीघ्र ही वह ठीक हो जायेगा।
आदेश की ओर से हारकर सुभाष ने रश्मि का विवाह अन्यत्र कर दिया।
उसे इस बात के लिए बहुत दुःख हुआ कि आदेश ने उसको निराश किया। फिर भी वह आदेश से नाराज नहीं हुआ, बल्कि उसका स्नेह पूर्ववत बना रहा। शादी होने के बाद रश्मि भी अपने पति के साथ श्रीनगर चली गई।
किसी काम से एक दिन सुभाष दिल्ली पहुंचा तो उसने सोचा कि आदेश से भेंट करता चले। लेकिन आदेश की रुग्णावस्था देखकर वह बेचैन और दुःखी हो उठा।
एक सप्ताह दिल्ली में रुककर सुभाष ने आदेश की निरन्तर देखभाल की। हर प्रकार से ध्यान रखा। फिर से उसे विभिन्न डॉक्टरों को दिखाया।
सब डॉक्टरों से निराश होकर सुभाष आदेश और शालिनी को ले आया। वैसे तो वह पति-पत्नी में से कोई भी गांव आने का इच्छुक नहीं था। शालिनी उन दिनों गर्भवती भी थी। लेकिल सुभाष की जिद के आगे उनकी एक न चली।
सुभाष का विचार था कि गांव के खुले और शुद्ध प्रदूषण रहित वातावरण और स्वास्थ्यप्रद जल से शीघ्र ही आदेश का स्वास्थ्य ठीक हो जायेगा।
आनन्द नगर में सुभाष ने आदेश को अनेक हकीम और वैद्यों को दिखाकर इलाज प्रारम्भ कराया, लेकिन उसकी बीमारी में कोई फर्क नहीं आया।
इलाज होता भी कैसे? बीमारी किसी की समझ ही नहीं आ रही थी।
उन्हीं दिनों सुभाष का विवाह भी सम्पन्न हो गया। उसने भी विवाह अपनी इच्छा से किया था। उसकी पत्नी श्वेता भी खूबसूरती की उपमाओं को नीचा दिखाती थी। वह निकट के ग्राम कंडियाला के एक ठाकुर परिवार की इकलौती लाडली थी।
निश्चित समय पर शालिनी के बेटी पैदा हुई। बहुत खूबसूरत और प्यारी थी उस की नन्हीं गुड़िया। इसका नाम छवि रखा गया। सुभाष और श्वेता के यहां भी इसके कुछ माह बाद एक बेटा पैदा हुआ।
जैसा कि उस क्षेत्र में होता आया था कि पैदा होते ही बच्चों के संबंध निश्चित कर दिये जाते थे। इन दोनों दम्पतियों ने भी अपने बच्चों की सगाई कर दी।
आदेश और शालिनी की इच्छा पर नवजात बालक आनन्दपुर की शानदार सफेद हवेली का दामाद बन गया।
अब आगे भी इन दोनों पति-पत्नी ने गांव में रहने का निश्चय किया।
शालिनी तो गांव में रहकर प्रसन्न थी। लेकिन आदेश को तो मौत निरन्तर जैसे अपने आगोश में बुला रही थी। शालिनी उसके लिए हमेशा चिन्तित रहती थी। वह हर समय उसके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना करती रहती थी। किन्तु जिन्दगी तो मानो आदेश से रूठती जा रही थी।
घूमता-घामता सुभाष एक दिन पहाड़ी पर गया तो उसे वहां रहने वाले एक सिद्ध संन्यासी का ध्यान आया। वह तुरन्त उस चमत्कारी साधु के पास जा पहुंचा।
सुभाष ने संन्यासी को अभिवादन कर आदेश के रोग और कराये गये इलाज के सम्बन्ध में विस्तार से सब कुछ बताया और प्रार्थना की कि वह उसे किसी प्रकार स्वस्थ कर दें। सुभाष का अनुरोध स्वीकार कर वह तुरन्त उसके साथ चले आये।
बोले-"चलो बेटा! देखते हैं...।"
हवेली पहुंचकर साधु जी बिना किसी ओर देखे सीधे आदेश के कक्ष में जा पहुंचे। उन्होंने आदेश के सिवा सब को कमरे से निकाल दिया।
सबके कमरे से बाहर निकल जाने के बाद उन्होंने आदेश से कहा-“बेटा, अपने सारे वस्त्र उतार दो।"
आदेश ने गुरुजी के आदेश का पालन करते हुए कपड़े उतार दिये तो उन्होंने पूरे शरीर पर गहन दृष्टि डालने के बाद पूछा-“तुम्हारी शादी को दो वर्ष होने को है।
“जी बाबा।"
शादी के सम्बन्ध में पूछने पर आदेश ने पूरा विवरण संन्यासी को सुना दिया। जिस में शालिनी के जंगल में मिलने आदि की सब जानकारी थी।
गुरु जी चिन्तित स्वर में बोले-“यदि मेरा सन्देह सही है तो बेटा, तुम एक भयानक प्राणघाती बीमारी के शिकार हो चुके हो। लेकिन उसका निश्चय करने के लिए तुम्हें मेरे कहे अनुसार चलना होगा।"
गम्भीर भाव से गुरुजी ने अपनी बात आगे बढ़ाई-“तुम्हें अब चौदहवीं की रात की प्रतीक्षा करनी होगी। उस रात तुम सोओगे नहीं, केवल सोने का नाटक कर पड़े रहोगे।
तुम्हारी पत्नी भी उस रात तुम्हारे कमरे में ही रहेगी।"
आदेश को गुरुजी ने सब कुछ भली प्रकार समझा दिया और उसके बाद चौदहवीं की रात की प्रतीक्षा की जाने लगी। सातवें दिन चौदहवीं की रात आई तो आदेश ने सिद्ध गुरुजी के निर्देश पर अमल करना प्रारम्भ किया।
दरवाजे को भीतर से ताला लगाकर उसने चाबी छुपाकर रख दी और प्रत्येक दिन की भांति बिस्तर पर सोने के लिए जा लेटा।
शालिनी भी निकट ही सो रही थी।
रात्रि का दूसरा प्रहर प्रारम्भ हुआ ही था कि अचानक शालिनी की नींद टूट गई और वह उठकर बाहर जाने वाले दरवाजे को खोलने का प्रयास करने लगी, किन्तु दरवाजा उससे नहीं खुला क्योंकि ताला लगा था।
झल्लाकर शालिनी वापस बिस्तर की ओर आई। उसके हाव-भाव में विचित्र सी बेचैनी दिखाई दे रही थी। उसने आदेश के पास जाकर देखना चाहा कि वह सो रहा है या नहीं? और जब उसे तसल्ली हो गई कि आदेश सो गया है, तो वह थोड़ा पीछे हटी और मानो कोई चमत्कार हुआ। वह इंसान से नागिन में बदल गई।
अब वह सरकती हुई एक छोटे से झरोखे से कमरे से बाहर जा पहुंची।
आदेश सो नहीं रहा था, वह तो गुरुजी के निर्देश पर सोने का केवल नाटक कर रहा था और जैसे ही उसने शालिनी को नागिन में बदलते देखा तो उसके मानो होश उड़ गये।
कुछ समय पश्चात नागिन पुनः एक झरोखे से कमरे में प्रविष्ट हुई और शालिनी के रूप में आकर आदेश के पास आ लेटी।
कुछ ही देर में शालिनी तो निद्रा की गोद में समा गई, लेकिन खौफ के मारे आदेश सारी रात सो नहीं पाया।
वैसे तो आदेश बहुत धैर्य रखे हुए था। अन्यथा उसकी इच्छा यह हो रही थी कि नाटक छोड़ वहां से भाग निकले। किन्तु गुरुजी का आदेश था कि वह कोई ऐसी भूल न कर दे जिससे शालिनी को अनुमान हो जाए कि उसका रहस्य खुल चुका है। इस कारण विवशता में वह चुपचाप लेटा रहा और यही विवशता उसकी जान ले बैठी, क्योंकि शालिनी की सच्चाई जानकर, डर के कारण उसके दिल की धड़कनें बहुत तेज हो गईं और वह प्राण गंवा बैठा
प्रातः आदेश के मरने का समाचार फैला तो गांव भर में शोक फैल गया। क्योंकि वह अपने बाप की भांति अन्यायी व अय्याश नहीं था।
शालिनी थोड़ी-थोड़ी देर में बेहोश होकर गिर रही थी। सुभाष भी बहुत दुःखी हुआ। फिर भी वह शालिनी को हिम्मत बंधा रहा था।
दुःखी दिल से गुरुजी पहाड़ पर वापस चले गये। किन्तु जाने से पहले वह सुभाष से कह गये थे कि वह समय निकालकर जल्द उनके आश्रम में आकर मिले। सुभाष ने शीघ्र दर्शनों का वचन तो दे दिया, लेकिन गुरुजी के पास जाने की उसे फुर्सत न मिल सकी।
थोड़ा ही समय बीता था कि सुभाष की पत्नी भी चल बसी। आश्चर्यजनक बात यह थी कि वह सांप के डसने से मरी थी। जबकि राजकुमार ने इलाके को सर्पविहीन कर डाला था। गांव वाले हैरान थे कि श्वेता को डसने वाला सांप यहां कहां से आया था। गांव में फिर शोक व्याप्त हो गया। सुभाष के लिए तो यह असहनीय झटका था।
एक ओर अब शालिनी थी, जो विधवा हो चुकी थी तथा दूसरी तरफ आदेश का दोस्त सुभाष था, जो स्वयं विधुर हो चुका था। जब वह स्वयं ही शोकमग्न था। तो शालिनी को हिम्मत कैसे देता!
लेकिन आज शालिनी से बड़ा सुभाष का हितैषी शायद कोई नहीं था। वह सुभाष को हिम्मत बंधा रही थी।
सुभाष शालिनी की सच्चाई से अभी तक अनभिज्ञ था। अब शालिनी उसकी बहुत बड़ी हितचिन्तक थी।
दिन बीतते जा रहे थे और शालिनी सुभाष के प्रति आकृष्ट होने लगी थी। स्वयं सुभाष भी शालिनी के विषय में कुछ अलग ही भावनाएं पाने लगा था।
को एक दिन गुरुजी का ध्यान आया तो वह उनके आश्रम की ओर चल पड़ा। वहां जाकर उसने गुरुजी को श्वेता की मौत के बारे में भी बताया। उसकी बात सुनकर गुरुजी इस प्रकार चौंके जैसे उन्हें करंट लगा हो। उन्होंने बताया- “सुभाष, मैं आदेश की बीमारी और मौत तथा श्वेता के मरने का रहस्य जानता हूँ .
अचानक आश्चर्य से सुभाष ने पूछा कि क्या श्वेता की मौत का भी कुछ रहस्य है?
गुरुजी ने आदेश और अपना अन्तिम वार्तालाप तथा चौदहवीं की रात का पूरा विवरण बताते हुए कहा-“सुभाष, शालिनी मानव-योनि में एक नागिन है।"
हैरान होकर सुभाष एकटक गुरुजी को देखता रह गया कि आखिर वह क्या कह रहे हैं! उसके आश्चर्य का समाधान करते हुए गुरुजी बोले
"शालिनी एक इच्छाधारी नागिन है, यदि कोई सांप सौ वर्ष तक मानवीय दृष्टि से बचा रहे तो वह इच्छाधारी बन जाता है तथा स्वेच्छा से कोई भी रूप धारण करके आपके सामने आ सकता है। सौ साल पूरे करने पर नागिनें प्रायः सुन्दर स्त्री के रुप में रहना चाहती हैं। ऐसी नागिनें बेमिसाल खूबसूरत रूप धर लेती हैं।"
सुभाष पर मानो आश्चर्य के पहाड़ टूट रहे थे। उसका मुंह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया था।
गुरुजी के अगले शब्द सुभाष के होश उड़ाने के लिए पर्याप्त थे। वह कह रहे थे-“श्वेता को रास्ते से वास्तव में शालिनी ने हटाया। अब उसका अगला निशाना तुम हो। वह पहले तुमसे विवाह करेगी और फिर अपने पूर्व पति की भांति तुम्हें भी बीमार करके मौत के घाट उतार देगी।"
खौफ और आश्चर्य के मारे सुभाष की आंखें फटी जा रही थीं। गुरुजी का एक-एक वाक्य सत्य लग रहा था। वह दोनों एक-दूसरे को चाहने लगे थे। शालिनी की वास्तविकता की जानकारी से सुभाष घबरा उठा, क्योंकि वह आदेश की राह नहीं जाना चाहता था। घबराकर उसने गुरुजी से पूछा
"गुरुजी, इससे छुटकारा सम्भव है?"
"इसके लिए बड़ी सावधानी और चतुराई की आवश्यकता होगी। अन्यथा जरा भी अंदेशा होते ही शालिनी अपने स्वाभाविक गुण के अनुसार सबका विनाश कर डालेगी।"
इसके बाद गुरुजी ने सुभाष को परामर्श दिया कि वह शालिनी के निकट होने का नाटक करे और यदि वह शादी का प्रस्ताव रखे, तो वह तुरन्त मान ले।
"फिर?"
"शादी के बाद ध्यान रखना कि सफेद हवेली में एक ऐसा कमरा भी बना हुआ है जिसमें लकड़ी का बहुत ज्यादा प्रयोग किया गया है। तुम उसे ज्यादा आकर्षक बनाने के लिए उसमें लकड़ी और लाख का काम करवाओ। शादी के बाद जब वह सुहागरात को तुम्हारे कमरे में आ जाए तो किसी बहाने कमरे से बाहर निकल जाना और मिट्टी का तेल छिड़क कर उस कमरे को इस प्रकार आग लगा देना कि शालिनी समेत कमरे की प्रत्येक वस्तु जलकर खाक बन जाये। यह भी हो सकता है कि उस आग से हवेली को नुकसान पहुंचे, लेकिन इसके सिवा और कोई रास्ता उससे पीछा छुड़ाने का नहीं है।"
इस दुष्कर कार्य को करने के लिए सुभाष तैयार हो गया और उसने यह प्रतिज्ञा भी की कि शालिनी से वह अपने दोस्त की मृत्यु का प्रतिशोध जरूर लेगा।
गुरुजी का आशीर्वाद प्राप्त कर वह वापस आ गया।
अब सुभाष हर प्रकार से शालिनी का ख्याल रखने का दिखावा करने लगा। दोनों अपने-अपने लक्ष्य के ख्याल से परस्पर नजदीक आते गए और एक दिन शालिनी ने सुभाष के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रख ही दिया और थोड़ी किन्तु-परन्तु के बाद सुभाष ने उसे स्वीकृति प्रदान कर दी।
शादी से पूर्व मिले समय में सुभाष ने हवेली के एक कमरे में ढेर सारी लकड़ियों का काम करवाया और उसके ऊपर लाख के फूल-पत्ती बनवाये।
एक सादे समारोह में सुभाष और शालिनी का विवाह सम्पन्न हो गया। गांववासी भी इस विवाह से प्रसन्न हो उठे।
विवाह की पहली रात सुभाष के लिए कठिन परीक्षा की रात बनकर आई थी। जिन्दगी और मौत की बाजी थी। जरा सी चूक होते ही सुभाष की जान जाते देर नहीं लगनी थी।
दुल्हन बनी शालिनी सुहाग-कक्ष में सुभाष की प्रतीक्षा कर रही थी। लेकिन उसकी यह प्रतीक्षा अधूरी ही रह गई।
नियत कार्यक्रम के अनुसार सुभाष ने उस कमरे को आग की लपटों के हवाले कर दिया। लकड़ी और लाख से बना वह कमरा धूं-धूं कर राख हो गया, जिसमें शालिनी भी जलकर भस्म हो गई।
गांव वाले मदद के लिए वहां आये तो सुभाष ने उन्हें सारी वास्तविकता से अवगत कराया तो सुनकर आश्चर्यचकित गांववालों ने चैन की सांस ली।
सुभाष अपनी सफलता का समाचार गुरुजी को सुनाने पहाड़ पर उनके आश्रम पर भी गया।
गुरुजी प्रसन्न हुए कि एक खतरनाक इच्छाधारी बला का अस्तित्व समाप्त हो गया। जबकि यह कार्य इतना सरल नहीं था।
आज हवेली का स्वामी सुभाष बन गया था। अपने बेटे प्रिंस और आदेश की बेटी छवि की सही परवरिश के लिए उसने अपनी पत्नी श्वेता की बहन सुरेखा से विवाह कर लिया। सुरेखा प्रिंस का तो खूब ध्यान रखती थी; क्योंकि छवि की मां ने उसकी बहन श्वेता को मार डाला था इसलिए वह छवि से घृणा करती थी।
जबकि सुभाष छवि का पूरे मन से ध्यान रखता था। उसके विचार से तो छवि ही हवेली की वास्तविक वारिस थी। छवि और प्रिंस आये दिन परस्पर बड़े होने लगे। सुभाष की इच्छा थी कि वे दोनों ऊंची से ऊंची पढ़ाई करें। छवि की पढ़ाई के प्रति कोई रुचि नहीं थी। जबकि प्रिंस आगे की पढ़ाई के लिए श्रीनगर चला गया।
समय अपनी गति से इसी प्रकार चलता रहा और दोनों बच्चे युवावस्था में पहुंचे। छवि जैसे-जैसे बड़ी हो रही थी, वह अन्तरमुखी और एकान्तप्रिय होती जा रही थी।
छवि की गांव में कोई दोस्त नहीं थी। समय-समय पर हवेली में उससे मिलने गांव की लड़कियां तो आती थीं, लेकिन वह गांव में कभी किसी के घर नहीं जाती।
छवि सुभाष से भी कुछ खिंची-खिंची सी रहती थी। फिर भी सुभाष उसका बड़ा ध्यान रखता था।
बरस-दर-बरस बीतते गए।
प्रिंस अपनी पढ़ाई पूरी करके गांव लौट आया। सुभाष और सुरेखा ने उन दोनों का विवाह करने का निर्णय कर लिया।
उन दोनों के विवाह पर सुभाष ने पैसा पानी की तरह बहाया और अपने दिल की सारी उमंगें पूरी की थीं।
आखिर वह रात भी आ गई। हवेली में उनकी सुहागरात थी। प्रिंस अनेक अरमानों के साथ उस कमरे में प्रविष्ट हुआ। छवि दुल्हन के रूप में उसकी प्रतीक्षा में बैठी हुई थी।
प्रिंस ने छवि का घुघट हटाया तो उसका अद्वितीय रूप देखकर वह हक्का-बक्का रह गया। वह इस समय किसी अप्सरा के समान दिख रही थी।
प्रिंस ने अपनी पहनी हुई शेरवानी उतारकर खूटी पर टांग दी और जैसे ही वापस मुड़ा तो उसके होश उड़ गए। पलंग पर छवि के बजाय फन फैलाये एक नागिन फुफकार रही थी।
इससे पहले कि प्रिंस कुछ समझ पाता, उससे पहले ही नागिन पलंग से उछली और प्रिंस के माथे पर डस लिया।
चिल्लाता हुआ प्रिंस बाहर की ओर भागा और गिरता-पड़ता अपने पापा के पास जा पहुंचा। सुभाष और सुरेखा ने उसे देखा तो उनके भी तोते उड़ गए। कुछ ही देर में नागिन के जहर से छटपटाते प्रिंस ने सुभाष और सुरेखा की बांहों में प्राण छोड़ दिए। मरने से पहले अस्फुट स्वर में वह केवल यही कह पाया-“छ. ..वि...छवि औरत नहीं...नागिन है...उसी ने मुझे...।"
सुनकर सुभाष पछता कर रह गया और सोचने लगा शालिनी के साथ छवि को भी उसी समय क्यों नहीं आग के हवाले कर दिया था! उसे क्या पता था कि छवि के रूप में वह एक और नागिन को दूध पिला रहा है। लेकिन धोखा तो हो चुका था।
शीघ्र ही इस खबर को सुनकर सारे गांववालों का हवेली में जमघट लग गया। हर आदमी शोकमग्न था। सुभाष क्रोध से पागल हुआ जा रहा था।
उसने गांव वालों से कहा- "नागिन का दूसरा रूप छवि बच ना जाए...वह हवेली में ही कहीं होगी...। इस हवेली की ईंट से ईंट बजा दो।"
सुभाष के कहने की देर थी कि गांववालों ने हवेली को आग के हवाले कर दिया। । गांव वालों ने हवेली को इस प्रकार से आग लगाई कि वहां से परिन्दा भी बाहर ना निकल सके और तेज गति से भड़की आग ने हवेली को जला कर भस्म कर डाला।
गुरुजी भी उस दिन गांव में आए हुए थे। उन्हें इस घटना की जानकारी मिली तो वह भी गमजदा हो गए और कहने लगे-“खेद है कि मैं भी छवि की सच्चाई नहीं पहचान पाया...। और सुभाष, उसके बाद तुम मेरे पास आये भी नहीं। यह भी अच्छा हुआ कि हवेली को आग लगाकर तुमने छवि का नाम निशान भी मिटा डाला है, नहीं तो न जाने अभी वह क्या-क्या करती!"
अब इस हवेली अथवा पूरे गांव का अवशेष भी दिखाई नहीं देता है। केवल एक उस स्थान पर एक टीला मात्र बचा है, जिसे देखने पर यह यकीन करना सम्भव नहीं कि यहां कभी नागपुर नाम का गांव भी रहा होगा।
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..... Ichadhari Nagin Ki Kahani: Pratishodh [ Ends Here ] .....
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